रहम कर दे या रब
इंसानियत आज फिर शर्मसार हो गई
सद्का देते थे जो कभी आज खेरात खा गए।
आलिशा मकान वाले ऐसी हरकत कर गए और झोपडी में क्या हुआ होगा
गुरबत को मेरे शहर से खत्म कर दे या रब।
खुला है बाज़ार फकत कुछ समानो के लिए तो
गुरबत का हाल भी पूछो क्यूं कैद होने का रोना लगा रखा है।
खुदगर्ज़ी का आलम बढ़ रहा मेरे शहर
पनाह मांगते है हम पे अब रहम कर दे या रब।
जन्नत कहते थे कभी उस शहर के हालात जहन्नुम से बन गए
सूरज ना देखा तुमने क्यूं ये शिकायत करते हो पूछो ज़रा उनसे जिनका चांद नहीं लौटा।
बात करते है हवा की किसी की रोशनी खो गई
सुकून आ जाए हर दिल को अमन कर दे या रब।
बड़ी बेदर्दी है इस छोटी सी जिंदगी में भी
एक ही इंसान चेहरे हजार लिए फिरता है।
अब तो सिलसिला खत्म करो इन नफरतों की दीवार का
मोहब्बत पैदा कर दे हर क़ल्ब या रब।
अब तो बख्श दो मेरे हिंदुस्तान पे मज़हब नाम पे फसाद फैलाना
क्या याद रहोगे के इंसानियत के वक़्त जाहिलियत दिखाई थी।
वजह एक और नाम बदनाम सब का हो गया
खुद से रूबरू करा एक दूसरे का आइना कर दे या रब।
सूखी रोटी भी नसीब ना हुई और वो भूखे सो गए
तुमने शिकायत करी एक सा खाना खा के भी
बच्चे है बड़े भी इन्हे अकलमंद कर दे या रब
मुफलिसी को हर घर से खत्म कर दे या रब।
आज़ादी दिखी थी मुझे भी परिंदो के पंखों में
के मर गया वो प्यासा मेरी छत पे आकर।
आ जाए मुझे नज़र तकलीफ़ हर जान की
थोड़ा पिघल जाए ये दिल ऐसा नज़रिया कर दे या रब।
मसरूफियात की शिकायत करते थे इबादतघर के नाम पे
लो आज मुफ्त हो फिर बहाना कर के दिखाओ
सजदे में चले जाओ ज़रा किताब पढ़ के दिखाओ
तेरी मोहब्बत से हमें आज इत्तेला करा दे या रब।
किताबों पे धूल चढ़ा दी हमने अब तो संभल जा इब्न - ए - आदम
अपनी हैसियत से वाक़िफ हो जा के काल आज़ाद था आज आज़ादी में भी कैद है।
वक़्त वक़्त करते थे हम बेवजह
आज बेवजह बैठे हैं हमें क़ुबूल कर ले या रब।
जलता रहा वो सच्चाई के ईंधन में ज़िन्दगी भर
ज़ालिम वो एक झूठ में बाज़ी जीत गया।
बड़ी तंगदस्ती है आज सच्चाई की ज़माने में मेरे
तू अपने करम से इंसान में इंसाफ कर दे या रब।
हवा में भी खौफ पैदा कर दिया तूने
हम तुझे भूल गए थे ये तूने खूब याद दिला दिया
गाफिल थे हम भटके हुए हमें माफ कर दे या रब
गुमराही में मुब्तिला थे हमें साहिल कर दे या रब।
WRITTEN BY_
ZENAB KHAN
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