देहलीज़ (एक सच्ची कहानी)
सुबह सुबह मेरा दिन बिल्कुल वैसा ही था जैसा हर रोज़ रहता है। पढ़ कर नींद सी आने लगती है इसलिए कुछ देर में बाहर टहल लेती हूं और इसी बीच में नाश्ता करना होता है तो कुछ खाने का सामान साथ ही रखती हूं अम्मी को परेशान करना अच्छा नहीं लगता है और खुद बनाने में काफी वक़्त बर्बाद हो जाता है।
हालांकि आज नहीं करना था और जब बाहर गई तो एक कुत्ता जो हाथ से डराने से भाग जाता है वो पास आकर खड़ा हो गया ।
जानवरों से डर नहीं लगता और कूते तो फिर वफादार होते है इसलिए जानती थी के वो मुझे नुकसान नहीं देगा।
कुछ देर बाद जब मुझे लगा के शायद उसे भूख लगी होगी इसलिए मेरी चोखट पे कबसे ठहरा है तो कुछ रोटियां डाल दी । हां डाल दी, हालांकि वो था वफादार मगर था तो जानवर ही तो रोटी रखने का नियम तो बस इंसान के लिए ही बना है।
रोटियां सख्त हो चुकी थी एक दिन पुरानी होने के कारण तो जब जमीन से टकराई तो आवाज़ हुई मुझे लगा था वो नहीं खाएगा और बाकी जानवर उसे खा लेंगे मगर उसने खा ली ऐसा लगा जैसे जबरदस्ती खाई हो और खत्म करना चाहता हो फिर भी वो वहीं खड़ा रहा उसकी आंखो में आंसू आने लगे जो मुझे देख कर शायद कुछ कहना चाहता हो मगर मुझे बस यही लगा के भूख की वजह से शायद आया हो मगर उसके रोटी खाने के तरीक़े से साफ पता चल चुका था के वो भूखा नहीं था मगर मेंरी इंसानी सोच बस यही बता सकती थी के वो भी मतलबी है जो अपनी भूख के खातिर आया हो मगर उसकी ज़बान मैं सिर्फ उसके आंसू से नहीं समझ सकती थी वो अपनी जबान निकाल कर जैसे कुछ कहना भी चाहता था मगर मेरी सोच बस उसकी भूख तक ठहर गई और अपने बिस्किट लेने उसके लिए अंदर चली गई ।ज्यादा देर भी नहीं लगाई थी के वो अब काफी दूर चला गया था और जहां रोटियां डाली थी वहां जानवारो ने मुंह मारना शुरू कर दिया था जो मुझे नागवार गुज़रा और भगा दिया ।मेरी सोच इतनी खुदगर्ज कैसे हो सकती है के जो भूखा नहीं था उसे तो खिलाकर भेजा और जो भूखा था उसे भगा दिया । शुक्र है खुदा का के ये सोच मेरे अंदर जाने से पहले आ गई वरना वो बिस्किट जानवर के हिस्से के जब मुझमें जाते तो मेरा इंसानी रुतबा खत्म हो जाता।
उस कुत्ते की बात को नहीं समझने की वजह आज मुझे मेरी लोगों को समझने की कुव्वत बेकार लगने लगी और हर रोज़ मेरा उनको भागना के मेरा घर का आंगन गंदा कर देंगे और रोज़ का मामुल बना लेंगे मेरे देहलीज पे आना इसलिए उन्हें रोटियां नहीं डालती जबकि इस बात से बेखबर ही रही के मैं मेरे खुदा से रोज़ मांगती हूं और वो रोज़ मेरी बेपनाह ख्वाहिशों को जानते हुए भी रोज़ देता है और इतनी नशुक्र के उसने मुझे देने का ज़रिया बनाया जिससे खुद को मालिक समझने लगी भूल ही गई के नियम उसके सबके लिए एक है बस हैसियत अलग रखी है।
LINES BY_
ZENAB KHAN
No comments:
Post a Comment